सोमवार, 21 सितंबर 2009

कविता संभव -॥






कविता आती है मेरे दरवाज़े पर
जादुई नन्हीं बच्ची की तरह
वह जन्म लेना चाहती है
मेरी निष्क्रिय कोख से
जिसमें वर्षों से पला नहीं है कोई भ्रूण
हुए हैं कई असमय गर्भपात
और कुन्द हो गई हैं समागम की सभी इच्छाएँ

मैं भूल चुका हूँ गरम साँसों की दुन्दुभि
और डूबते तैरते अँगों की जुगलबन्दी
उस चरम उत्कर्ष को भी
जिसे शब्दों में नहीं किया जा सकता व्यक्त
और जिसके बाद प्रतीक्षा रहती है
अपने शरीर से उगते रक्तकमल की

नन्ही बच्ची खटखटाती रहती है दरवाज़ा
कोई नहीं सुनता उसकी सिसकियाँ
नींद के गहरे अँधेरे बँकर में बदलता रहता हूँ करवटें
किसी घायल सैनिक की तरह बदहवास
अचानक आँखों पर महसूस करता हूँ
छोटे मुलायन हाथों का स्पर्श
मेरी बेटी की तरह वह सुनती है मेरे हृदय की धड़कन
सहलाती है मेरा मस्तक माँ की तरह

उसे कोई शिकायत नहीं कि मैं
दरवाज़े पर सुनता नहीं उसकी
अलौकिक उँगलियों की थाप
उसे विश्वास है किसी दिन बदलेगी ग्रहों की चाल
और फिर से स्फुलिंग झरेंगे मेरी आत्मा से
कसमसाएगी देह
और कई करोड़ शुक्राणु कर जाएँगे प्रवेश मेरे डिम्ब में

और ... एक सुबह नन्ही सी लडकी
भोर की लालिमा की तरह तैर जाएगी मेरे आकाश में
समा जाएगी मेरी प्राण वायु में
जन्म लेगी मेरे गर्भ से
कविता बनकर



मंगलवार, 15 सितंबर 2009

कविता संभव


कविताएं अक्सर मिलती हैं मुझे


बिजली के तारों में फंसी पतंगों की तरह

उन्हें देखते ही मैं भूल जाता हूँ

अपने सारे दायित्व

और कंधों से फिसलने लगतें हैं सभी बोझ

जिन्हें ढोना है मुझे अपने अन्तिम सांस तक


उन क्षणों में

मैं सोच ही नहीं पाता

बिजली के तारों में छिपी है मौत

और उनकी ऊंचाई है मेरे क़द से छह गुना

मुझे ललचाते हैं पतंग के रंग

तिकौना आकार

और हवा में तैरती उसकी छोटी सी पूंछ


किसी जिद्दी बच्चे की तरह बैठ जाता हूँ वहीं

सब कुछ भूल कर सोचने लगता हूँ कोई जुगाड़

कि मुझे उतारनी है बस वही पतंग

जो फंसी है बिजली के तारों में


तेजी से बटोर कर लाता हूँ

पेड़ों की टहनियां और बबूल के कांटे

अब मुझे चाहिये सिर्फ़ एक डोर

ताकि मैं जोड़ सकूं टहनियों को

कि वे पहुंच सकें पतंग तक


मुझे मिलती नहीं डोर

क्योंकि वह लगती नहीं दरख्तों पर

उगती नहीं मिट्टी में

पर मैं पतंग को छोड़ नहीं सकता इसतरह

फंसे हुए बिजली के तारों में

बच्चे हंसते हैं मेरे उपक्रम पर

बड़े डाँटतें हैं मामूली सी पतंग के लिए इतनी बेचैनी क्यों

कोई नहीं भटका पाता मुझे


भीड़ की परवाह न करते हुए

आखिर मैं खींच लेता हूँ एक डोर

पायजामे का इजारबन्द जोड़ देता है टहनियों को

और तैयार हो जाती है जुगत

पतंग को छोड़ कर लोग देखने लगते हैं मेरा आदिम स्वरूप

और मैं विजयी भाव से पतंग लिए लौटता हूँ अपने घर


कविताएं अक्सर मिलतीं हैं मुझे

पतंगों की तरह फंसी बिजली के तारों में

उन्हें पाकर फिर कुछ नहीं मांगता मैं

ईश्वर भी नहीं

शनिवार, 5 सितंबर 2009

मृत्यु


मृत्यु तुम आना
जैसे आती है पवन गुलाब के बग़ीचे में
दबे पांव ओस की चमकती आंखों से बचते-बचाते
सहलाना कुछ देर स्नेह से सभी को
दुलारना उन्हें भी जिनकी अभी तक मुरझाई नहीं है एक भी पंखुड़ी
तुम्हारा स्पर्श खोलता है जीवन के नित नए अर्थ

मृत्यु तुम आना
जैसे आते हैं स्वप्न भोर की छाया में
तिलिस्म में क़ैद राजकुमारी को
छुड़ाने के लिए प्रकट होता है सपनों का राजकुमार
या फ़ुटपाथ पर सिकुड़े भिखारी की ठिठुरती
काया को मिलती है अलाव की गरमी
सुख से कर देना सराबोर उन्हें भी
जिन्हें जीने के लिए मरना पड़ा हो पल प्रतिपल


अमीर हों या गऱीब
सभी को रहती है प्रतीक्षा अच्छे स्वप्न की

मृत्यु तुम आना
जैसे वर्षा के बाद आता है आसमान में इन्द्रधनुष
तृप्त हो जाती है सारी सृष्टि
खेतों में लहलहातीं हैं गेहूं और धान की बालियां
ढोल और मंजीरों की थाप पर नाचते हैं गणदेवता
गदराई हुई नदियां
उत्ताप में उफनती भागती हैं सागर की ओर

मृत्यु तुम आना
किसी यक्ष की तरह गुनगुनाते हुए
अपनी यक्षिणी की तलाश में
या जैसे ऋचाओं को गुंजरित करता कोई दिव्य बटुक
भिक्षा के लिए खटखटाए किसी भाग्यवान का द्वार


तुम आना ऐसे मोहक रूप में
कि तुम्हें देख कर चकित हो जाएं अबोध बच्चे
दायित्व का अनुभव करें अल्हड़ जवान
सत्य का अहसास हो लौकिक जीवन में और
अग्नि या भूमि को समर्पित हो कोई शरीर
सफल यात्रा के बाद