गुरुवार, 20 अगस्त 2009

पिता मेरे



पिता मेरे
पहचाना तुमने मुझे
मेरी पहली चीख के साथ ही
कुछ जिज्ञासा लिए हुए
कुछ गर्वित होते हुए
प्रसव की कोठरी के बाहर
लगातार टहलते हुए
उस रात सिर्फ सपने देखे थे तुमने

पिता मेरे पहचाना तुमने मुझे
किसी रविवार की छुट्टी के दिन
धूप के कालीन पर नंगे पाँव ठिठुरते हुए

अपनी कमीज़ से कलफ़ को निकालकर
तुमने लाद दिया मुझे गर्म कपड़ों से
ज़िन्दगी-भर तुम नहीं खरीद पाए गरम कोट
माँ हर साल बुनती रही तुम्हारा स्वेटर
निहायत सस्ती ऊन से
पिता मेरे
क्या पिता होने के लिए
ज़िन्दगी-भर सर्दी में ठिठुरना ज़रूरी है?

पिता मेरे
पहचाना तुमने मुझे
धूप में सघन छाया बन कर
तैरते हुए मेरे अस्तित्व के इर्द-गिर्द
मैं उड़ाता रहा तुम्हारे स्नेह का मज़ाक
पर तुमने कभी कुछ नहीं कहा
तुमने अपनी पहचान को विलीन कर दिया
दूध में चीनी की तरह
सरकस के जोकर की तरह
तुम विजेता बने मुस्कुराते रहे मेरी सफलताओं पर
पिता मेरे
क्या पिता होने के लिए
अभिनेता होना भी ज़रूरी है?

पिता मेरे
पहचाना मैंने तुम्हें
तुम्हारे बाद
आँखें चौंधियाते सूरज की साक्षी में
पीपल के बिरवे में जल सींचते हुए

पिता मेरे
पहचाना मैंने तुम्हें
अपनी बिटिया को छुपा कर
अपने हिस्से की आइसक्रीम खिलाते हुए
अपने क़ीमती रूमाल से उसकी नाक पौंछते हुए
उसके सवालों के सामने निरुत्तर होते हुए

पिता मेरे
पहचाना मैंने तुम्हें
पिता होते हुए

8 टिप्‍पणियां:

  1. उनके कंधे पर बैठकर
    फुदकती थी मै चिडिया की तरह
    और देखती थी जाते हुए मेलहा गाँव में .

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  2. पिता मेरे
    क्या पिता होने के लिए
    ज़िन्दगी-भर सर्दी में ठिठुरना ज़रूरी है?

    बहुत ही संवेदनशील रचना ....आपने जी कब्लियात से अपने भावों को एक एक शब्द में पिरोया है काबिले तारीफ है .....

    बहुत ही उम्दा रचना .....!!

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  3. पहले तो मैं आपका तहे दिल से शुक्रियादा करना चाहती हूँ कि आपको मेरा ब्लॉग और कविता पसंद आया! मेरे अन्य ब्लोगों पर भी आपका स्वागत है!
    बहुत ख़ूबसूरत और दिल को छू लेने वाली रचना लिखा है आपने!माँ और पिताजी दोनों ही भगवान समान है! बहुत पसंद आया आपकी ये रचना!

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  4. पिता को समर्पित एक बेहतरीन कविता ..!!

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  5. ऐसे पिता हर किसीको नसीब हों ! मेरे ये नसीब नही थे...

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